गाजा नरसंहार के अपराध में फ़िलिस्तीन में अमेरिका की संलिप्तता यूरोप और दुनिया भर में एक विवादास्पद मुद्दा बनने के अलावा इस्लामी और अरब जगत में भी स्पष्ट मुद्दा है।
फ़िलिस्तीन में अमेरिका का हस्तक्षेप
अमेरिकी कांग्रेस के अधिकांश सदस्य इज़राइल के प्रति अपना समर्थन और बच्चों और महिलाओं की हत्या में इस शासन के औचित्य को सरे आम बताते हैं। उनको यह समझ में नहीं आता है कि उनका इस प्रकार जनसंहार को सही ठहराना अगर क्षेत्र की सरकारों को क्रोधित न भी करे तभ भी क्षेत्र की जनता के क्रोध का कारण तो अवश्य बनेगा।
खास कर तब जब क्षेत्र की जनता अमेरिका को पहले से ही सभी बुराईयों और खराबियों की जड़ मानती है, और उनता विश्वास है कि इस बुराई के विरुद्ध लड़ना चाहिए। और इसके लिए वह सालो से लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं, एक ऐसा टकराव जो क्षेत्र में अमेरिका के आधिपत्य और प्रभुत्व को समाप्त कर सकता है।
जो चीज इस दृष्टिकोण और इस धारा को मजबूत करती है वह रूस और चीन के बीच सकारात्मक सहयोग और बातचीत है, जो पूरी दुनिया में, खासकर मध्य पूर्व और फारस की खाड़ी क्षेत्र में अमेरिकी प्रभुत्व को खत्म करना चाहते हैं।
अमेरिकी प्रभुत्व समाप्ति की ओर
जिस चीज़ ने क्षेत्र मे अमेरिका विरोधी धारा को गठन और संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ क्षेत्र के देशों के एकजुट होने में तेजी प्रदान की है वह यह आम धारणा और सच्चाई है कि संयुक्त राज्य अमेरिका फ़िलिस्तीन में वर्तमान में हत्या और नरसंहार के युद्ध का नेतृत्व कर रहा है।
ऐक ऐसा युद्ध जो अमानवीय और अनैतिक आयामों की दृष्टि से वियतनाम और अफगानिस्तान के युद्धों से कहीं अधिक बड़ा है।
गाजा युद्ध और दूसरा विश्वयुद्ध
विशेषज्ञ फिलिस्तीनियों के खिलाफ गाजा पट्टी में अमेरिकी युद्ध को उस युद्ध के समान मानते हैं जो फ्रांस ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अल्जीरियाई लोगों के खिलाफ शुरू किया था, केवल इसलिए क्योंकि अल्जीरियाई लोग स्वतंत्रता और स्वतंत्रता चाहते थे।
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यह धारणा कि अमेरिका इस क्षेत्र के देशों और उसकी सुरक्षा के लिए खतरा है, उस धारणा के समान है जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मध्य पूर्व क्षेत्र में फ्रांस और इंग्लैंड के प्रति बनी थी। जिसके बाद इस क्षेत्र के देशों ने फ्रांस और ब्रिटेन के प्रभुत्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी थी।
यह धारणा तब और मज़बूत हुई जब जब फ्रांस ने मोरक्को, अल्जीरिया और ट्यूनीशिया जैसे देशों में नरसंहार और बड़े अपराध किए। जबकि उन्होंने वादा किया था कि दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद इन देशों को स्वतंत्र कर देंगे और देशों से बाहर निकल जाएंगे। यह बिलकुल ऐसा ही वादा है जैसा कि अमेरिका और पश्चिम की सरपरस्ती में ओस्लो संधि के समय फिलिस्तीनियों को एक स्वतंत्र राष्ट्र के लिए दिया गया था। लेकिन व्यवहार में इसने हत्या, नरसंहार,प्रतिबंध और घेरेबंदी के अलावा कुछ नहीं दिया।
अमेरिकी प्रभुत्व के घटने के कारण
इस क्षेत्र में अमेरिका का प्रभाव उसी रास्ते पर है जो पहले फ्रांस और इंग्लैंड ने अपनाया था। फ़िलिस्तीन की आज़ादी की लड़ाई हर दिन बढ़ती जा रही है। यह लड़ाई इस हद पर पहुँच गई है कि यह अब केवल फ़िलिस्तीन की आज़ादी की लड़ाई न होकर क्षेत्र के राष्ट्रों को संयुक्त राज्य अमेरिका के आधिपत्य और वर्चस्व से आज़ादी की लड़ाई बन गई है।
फ़िलिस्तीन में अमेरिका के व्यवहार के देखते हुए आज इस क्षेत्र में अमेरिका और उसके सहयोगियों की लिए जो क्रोध और घृणा की स्थिति बनी है, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इस क्रोध के दबाने के लिए अमेरिका और पश्चिमी देशों ने जनसंहार, नाकेबंदी, प्रतिबंध और दमन का रास्ता अपनाया है।
फ़िलिस्तीन में अमेरिका की पक्षपात पूर्ण नीतिया और जनसंहार एक ऐसा मुद्दा है जो तनाव और क्षेत्रीय संकट और यहां तक कि अमेरिकी प्रभाव के खिलाफ विभिन्न तरीकों से टकराव और विद्रोह को बढ़ाएगा जब तक कि यह प्रभाव खत्म नहीं हो जाता।
इस कारण से, फ़िलिस्तीन में अमेरिकी लड़ाई युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर करने या कैदियों की अदला-बदली के साथ समाप्त नहीं होगी। क्षेत्र में अमेरिका के प्रभुत्व के प्रति क्रोध अपने चरम पर पहुँच चुका है और यह कभी भी टकराव का रूप धार सकता है। निःसंदेह यह टकराव केवल सैन्य स्तर पर नहीं होगा बल्कि राजनीतिक, सैन्य, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्धिक, मीडिया सभी क्षेत्रों में इसका रूप दिखाई देगा।
निस्संदेह, इस तरह के टकराव की घटना से न केवल अमेरिका का क्षेत्रीय प्रभाव खत्म हो जाएगा, बल्कि इससे अमेरिका की शक्ति, प्रतिष्ठा और वैश्विक प्रभाव को भी गंभीर नुकसान होगा। इसी वजह से कई विशेषज्ञों का मानना है कि फ़िलिस्तीन में अमेरिका की हालिया लड़ाई विश्व महाशक्ति के रूप में इस देश की आखिरी लड़ाई है।